BA Semester-1 Hindi Kavya - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-1 हिन्दी काव्य - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 हिन्दी काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :250
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2639
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-1 हिन्दी काव्य

अध्याय - 17
गोस्वामी तुलसीदास
(व्याख्या भाग)

अयोध्याकाण्ड

जाउँ मरमुराउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।
थाती राख न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहिं भोर सुभाऊ ॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू ॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई ॥
नहि असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा ॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई ॥
बात दृढाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली ॥
दोहा - भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लिनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु ॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा सम्पादित श्री रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास' में संकलित अयोध्याकाण्ड से उद्धृत हैं।

प्रसंग - कैकेयी की बात सुनकर राजा ने हँसकर कहा -

व्याख्या - अब मैं मर्म या मतलब समझा। तुम्हें रूठना या भान करना अत्यंत प्रिय है। भाव यह कि तुम दिखावे के लिए इस प्रकार रूठ जाया करो और हम तुम्हें मनाते रहें। तुमने अपनी धरोहर हमारे पास रख दी पर उसे कभी-भी माँगा नहीं। मैं भी भोला-भाला भुलक्कड़ स्वभाव का हूँ इसलिए भूल गया। तुम जान-बूझकर झूठे से भी हमको इस बात के लिए दोष मत दो। हमसे इस बात का कोल करवा लो या वचन ले लो, अब दो के बदले चार वरदान माँग लो। रघुकुल में यह प्रथां सदा से चली आई है कि रघुवंशी के प्राण भले ही चले जाएँ पर दिए हुए वचन को वह हर स्थिति में पूरा करता है। भाव यह कि हम अपने प्राण देकर भी अपने दिए हुए वचन का निर्वाह करते हैं। झूठ के समान पापों का समूह भी नहीं होता है यह ठीक इसी प्रकार है जैसे करोड़ों घूंघचियों को मिलाकर भी उसकी समानता पर्वत से नहीं की जा सकती। भाव यह कि यदि हम तौलने की प्रक्रिया में एक पलड़े में पापों का पहाड़ बनाकर रख दें और दूसरे में एक झूठ को तो झूठ का पलड़ा भारी रहकर नीचा ही रहेगा। पाप स्त्री के समान है फिर इसके ढेर की भला पर्वत से क्या समानता। सभी सुकृत तभी सुहाते हैं जब उसके भूल में सत्य हो। यह बात वेद और पुराणों में भी प्रसिद्ध है तथा मनु जी ने अपनी मनुस्मृति में इस बात को कहा है। फिर मैंने तो राम की शपथ ले रखी है। राम तो स्वयं ही पुण्य और स्नेह की सीमा हैं। भाव यह कि अत्यधिक पुण्य करने और स्नेह को बनाए रखने के उपरान्त ही राम की प्राप्ति होती है। इसलिए इस शपथ को नहीं तोड़ा जा सकता है। राजा की मनोभावनाएँ सुंदर हरे-भरे वन के समान हैं, जिसमें सुख रूपी सुंदर पक्षियों का समाज रहता है। अब कैकेयी रूपी भिलनी अपने वचन रूपी भयंकर बाज को छोड़ना चाहती है। भाव यह कि राजा से राम शपथ को पुनः पक्का करवाकर कैकेयी अब अपने उन वचनों को कह डालना चाहती है जिससे राजा की वहीं दशा होने वाली है, जो बाज के छोड़े जाने पर पक्षी की हो जाती है अर्थात् बाज पक्षी का शिकार कर उसे मार डालता है उसी प्रकार कैकेयी के वचन भी राजा के मनोरथ रूपी सुंदरवन के सुढा रूपी पक्षियों का शिकार कर उन्हें समाप्त कर देंगे।

विशेष- (i) इसमें राजा दशरथ के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है। वे भोले-भाले सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं। वे धर्म शास्त्र और परम्परा की दुहाई देकर स्वयं को उस स्थिति में फंसा लेते हैं, जिसमें से निकलना कठिन हो जाता है।
(ii) इसमें कैकेयी को भीलनी तथा उसके वचन के लिए भयंकर बाज से उपमान बड़ा सटीक है।
(iii) इसमें अनुप्रास, सम, दृष्टान्त, उपमा तथा रूपक अलंकार हैं।

एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा ॥
भरतु कि राउर पूत न होंही। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे ॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं ॥
देन कहे अब जनि बरु देहू। तजहु सत्य जग अपजसु लेहू ॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहिं मागि चबेना ॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा ॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई ॥

दोहा - धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इन पंक्तियों में कैकेयी के वचनों का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - इस प्रकार राजा मन ही मन खीझतें रहे और उनके इस बुरे ढंग को देखकर दुर्बुद्धि बुरी तरह क्रोधित हो उठी। वह कहने लगी कि क्या भरतं आपका पुत्र नहीं। क्या उसे दाम देकर खरीदा है या मुझे मोल लाए हो जो मेरा वचन ( भरत को राज्य) को सुनकर तुम्हें तीर सा लग गया। पहले ही तुम क्यों नहीं वचन संभाल कर बोले। उत्तर दीजिए मेरे कहे अनुसार करोगे कि नहीं। रघुकुल में एक तुम्हीं तो सत्यवादी हो। वरदान देने को कहा था। अब नहीं देना तो मत दो। सत्य को छोड़कर संसार में अपयश लीजिए। आपने तो अपने सत्य की बढाई करके वरदान देने को कहा था। सोचते थे चबैना ही माँग लेगी। कहने का भाव यह है, कि जो मैंने माँगा है, देना ही पड़ेगा। यह आज की नई बात नहीं है। पहले भी राजा शिवि ने बाज से कबूतर की रक्षा अपना शरीर देकर की थी। दधीचि ने देवताओं की भलाई के लिए अपना तन त्याग दिया था, और राजा बलि ने अपनी प्रतिज्ञा से अपना सारा राज्य दे डाला। ये सारी बातें तुम्हीं ने मुझे बताई हैं। उन लोगों ने अपने वचन की रक्षा की और उसके लिए अपना शरीर और धन त्याग दिया। कैकेयी इस समय बहुत ही कड़वी बात कह रही हैं। उसकी बातें इस समय ऐसी लग रही हैं, मानों वह जले पर नमक छिड़क रही हो। तब धर्मज्ञों में श्रेष्ठ राजा ने धैर्य धारण कर अपने नेत्र खोले और उन्होंने अपना माथा पीट गहरी साँस ली। उनके मन में एक बात आती है, कि इसने बड़ी बुरी ठोर पर तलवार से मारा है।

विशेष (i) इसमें कैकेयी के क्रोधावस्था का वर्णन किया गया है। वह क्रोध में किस प्रकार के कटु वचन बोलती है। यही उसका वाकचातुर्य है।
(ii) चबैना माँगना, जरे पर नमक छिड़कना, सिर धुनना आदि मुहावरे व कहावतों का प्रयोग है।
(iii) इसमें अनुप्रास, वक्रोक्ति, दृष्टान्त तथा उत्प्रेक्षा अलंकार हैं।

आगे दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उधारी ॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा ॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती ॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती ॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरु साखी ॥
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।।
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई ॥

दोहा - लोभु न रामहि रांजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति ॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - कैकेयी के क्रोध का उल्लेख इन पंक्तियों में हुआ है।

व्याख्या - राजा दशरथ ने अपने सामने कैकेयी को भारी क्रोध में जलते हुए देखा। वह ऐसे दिखाई पड़ती थीं मानों क्रोध रूपी तलवार को म्यान से निकाल लिया हो। उस तलवार की मूठ कुबुद्धि है तथा निष्ठुरता ही उसकी धार है जिसे कुबरी ने भली-भाँति शान पर धार देकर तेज किया है। राजा ने जब उसके भयंकर और कठोर रूप को देखा तो उन्हें लगा कि यह मेरा सत्य अथवा प्राण अवश्य लेगी। भाव यह कि राजा पहले सोचते थे कि वह रूठ गई हैं तो उसे सहज में मना लेंगे पर उसे क्रोध में देखकर हिम्मत जवाब दे गई। तब राजा ने अपनी छाती को कड़ा किया और बहुत ही नम्र तथा विनती से भरी हुई उसकी सुहाती हुई वाणी में कहने लगे हे प्रिया ! तुम क्यों इस प्रकार के बुरे वचन बोल रही हो। तुम संकोच, विश्वास और प्रेम सब कुछ नष्ट कर रही हो। भाव यह कि बुरे वचन बोलने से ये तीनों ही नष्ट हो जाते हैं। मेरे तो भरत और राम दोनों दो आँखें हैं। यह बात मैं शंकर भगवान को साक्षी देकर सत्य कहता हूँ। मैं प्रातः ही अवश्य दूत भेज दूँगा। समाचार सुनते ही दोनों भाई भरत और शत्रुघ्न शीघ्र ही आ जाएंगे। सुंदर मुहूर्त निकलवाकर उत्सव की सारी तैयारी की हैं। मैं धूमधाम से या डंके की चोट पर भरत को राज्य दे दूँगा। राम को राज्य का लोभ नहीं है। मैं ही छोटे-बड़े का विचार मन में कर राज्य नीति का पालन कर रहा था।

विशेष- (i) इसमें अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, रूपक अलंकार हैं।
(ii) इसमें भाषा प्रसाद गुण से मुक्त है।

जिऐ मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना।।
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं ॥
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना जीवनु राम दरस आधीना ॥
सुनि मृदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई ॥
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउर माया।।
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।
राम साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने ॥
जस कौसिला मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका।।

दोहा - होत प्रातु मुनिबेष धरि जौं न राम बनु जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समझिअ मन माहिं ॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में राजा दशरथ का राम के प्रति अगाध प्रेम का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - मछली चाहे बिना पानी के जीवित रह जाए: सर्प भले ही बिना मणि के दुःख से हीन होकर जीवित रहे। मैं तुम्हें अपने स्वभाव या अपने बारे में बता दूँ कि मेरे मन में कोई छल कपट का भाव नहीं है। मेरा जीवन बिना राम के नहीं रह सकता है, हे चतुर प्रिय! तू अपने मन में अच्छी तरह सोच- समझकर देख ले। मेरा जीवन राम दर्शन के अधीन है अर्थात् यदि मैं राम दर्शन न कर पाउँगा तो अवश्य ही मर जाऊँगा। भाव यह कि तू प्रिया होने पर भी मुझे प्राण दण्ड दे रही है। राजा के ऐसे वचन सुनकर दुर्बुद्धि कैकेयी और अधिक जल गयी अर्थात् उसकी पीड़ा और अधिक बढ़ गई। उस समय ऐसा लगा मानो अग्नि में और घी की आहुति दे दी गई हो। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा कि आप कुछ भी कहें और चाहे करोड़ों उपाय कर लें। यहाँ पर अथवा मुझ पर आपकी और माया नहीं चलेगी अर्थात् मैं तुम्हारी चालों में आने वाली नहीं हूँ या तो आप वरदान दो अथवा नहीं करके अपयश लो मुझे बहुत अधिक बखेड़ा या टालमटोल करने वाली बातें नहीं सुहातीं अर्थात् मुझे तुम्हारी और अधिक बातें नहीं सुननी हैं। राम साधु है और तुम सयाने साधु और राम की माता कौशल्या भी भली हैं। मैं अब सबको पहचानती हूँ। भाव यह कि तुम्हारा यह सब प्रेम-भाव ऊपरी दिखावा मात्र है। जिस प्रकार कौशल्या ने मेरी भलाई चाही है वैसा फल मैं उन्हीं को देकर ऐसा मजा चखाऊँगी कि मरण पर्यन्त याद रहे अर्थात् उसके मस्तिष्क में मंथरा के शब्द गूँज रहे हैं, कि कौशल्या तुझे दासी बनाएगी और भरत को काराग्रह में बंद करवा देगी। इसलिए तुमने और कौशल्या ने एकमत होकर भरत को यहाँ से बाहर भेजा हुआ है। कैकेयी ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि सुबह होते ही मुनि वेष धारण कर राम जो वन को न गए तो हे नृप ! मन में यह समझ लीजिए कि मैं मर जाऊँगी और आपको अपयश मिलेगा।

विशेष- (i) यहाँ दशरथ ने अपनी बात दृष्टांत देकर स्पष्ट करनी चाही कि राम के दर्शन के बिना वह जीवित नहीं रहेंगे। इससे उनके मन में राम के प्रति अगाध प्रेम का भी पता चलता है।
(ii) कैकेयी ने व्यर्थ का प्रपंच बढ़ते देख अपना फैसला सुनाया कि या तो बात पूरी करो अथवा वह मर जाएगी। इसमें कैकेयी के स्वभाव में दृढ़ता का पता चलता है कि वह जो सोच लेती है, वही करती है।
(iii) इसमें विनोक्ति, दृष्टांत, उत्प्रेक्षा, अन्योन्य अनुप्रास अलंकार हैं।
(iv) इसमें गूढार्थ व्यंजना है।

अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी ॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई ॥
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा भवर कूबरी बचन प्रचारा ॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला ॥
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची ॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी ॥
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम विरहँ जनि मारसि मोही।।
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती ॥

दोहा - देखी व्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ ॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में अपने वरदानों पर दृढ़ रानी की भयंकर दशा का तथा राजा दशरथ की दयनीय दशा का चित्रण किया गया है।

व्याख्या - अपने वरदानों के वचनों को दुहराती हुई रानी खड़ी हो गई। मानो रानी के रूप में क्रोध की नदी ही उमड चली हो यह नदी पाप रूपी पर्वत से निकली है। रानी के हृदय में क्रोध की अधिकता ही नदी में अथाह जल है। रानी देखने में भयंकर लगती है। बाढ़ से व्याप्त नदी की ओर भी भय के कारण देखा नहीं जा सकता है। रानी द्वारा माँगे गए दोनों वरदान ही नदी के दो किनारे हैं। वरदान माँगने का हठ ही उसकी धारा है। मंथरा द्वारा कहे हुए वचनों की प्रेरणा ही उस नदी में भँवर हैं। रानी ने इस प्रकार राजा के शरीर को नष्ट ही कर दिया, नदी भी अपने किनारे के वृक्षों को नष्ट कर देती है। रानी भी महान विपत्ति की ओर उसी प्रकार बढ़ रही है, जैसे नदी उमड़ते हुए समुद्र की ओर जाती है। समुद्र में जाकर नदी का अस्तित्व नष्ट हो जाता है। आगे चलकर नदी का अस्तित्व भी नष्ट हो गया। राजा ने अब समझ लिया कि रानी परिहास नहीं कर रही है वह सच्ची बात कह रही है। इस पत्नी के बहाने से मृत्यु ही मेरे सिर पर आ गई है। राजा ने रानी के चरण पकड़कर उसे बिठाया तथा कहा रानी ! सूर्यवंश को नष्ट करने के लिए कुल्हाड़ी का काम मत करो। तू मेरे सिर को माँग, मैं दे दूँगा किन्तु राम के वियोग में मेरे प्राण हरण न कर किसी भी प्रकार से तू राम को रख ले, अन्यथा जन्मभर दुःख से छाती जलती रहेगी। कैकेयी के कुछ न बोलने पर राजा ने समझ लिया कि रोग असाध्य है। तब वे हाय राम! हाय रघुनाथ! ऐसा कहते हुए अपना सिर पीटकर पृथ्वी पर गिर पड़े।

विशेष- (i) इसमें कैकेयी और नदी का सांगरूपक दिया गया है। इस सांगरूपक के माध्यम से कवि ने रौद्र रूप की अभिव्यंजना की है।
(ii) इसमें अनुप्रास, रूपक, ब्याज निंदा, पुनरुक्ति अलंकार हैं।

चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें ॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं विधि बामू ॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई ॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।।
तोरं कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ ॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जाने कछु कहसि बहोरी।
फिरि पछितैहसि अंत अभागी मारसि गाइ नहारू लागी।।

दोहा - परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
कपट सयानि न कहति कुछ जागति मनहुँ मसानु।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - राजा दशरथ कैकेयी को समझाते हुए कहते हैं।

व्याख्या - भरत को भूपता या राजत्व भूलकर भी नहीं चाहिए। भाग्यवश तेरे हृदय में ऐसी बुरी बात या कुमति आ बसी है। यह सब मेरे पाप का परिणाम है। इसीलिए तो विधाता बेमौके या बिना अवसर के उल्टा हो गया है (भाव यह कि सोचा कुछ था और हो रहा कुछ और ) यह अयोध्या पुनः स्वतंत्र रूप से सुहावनी होकर बसेगी जब समस्त गुणों के धाम राम की प्रभुता होगी अथवा वे राजा बनेंगे। सारे भाई मिलकर उसकी सेवा करेंगे। ऐसी अवस्था में रामचन्द्र जी की तीनों लोकों पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल में होगी। तुझे लगा हुआ कलंक (राम को बनवास देना आदि) और मेरा पछतावा (राम को राजा बना हुआ न देख पाना ) हमारे मर जाने पर भी कभी नहीं मिटेगा और न कभी जाएगा।

अब तुझे जो अच्छा लगे वह कर मेरी आँखों की ओत हो जा और कहीं जाकर मुँह छिपाकर बैठ जा। भाव यह कि मेरी आँखों के सामने से हट जा। मैं तुझसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि जब तक मैं जीवित रहूं तब तक तू फिर कुछ मत कहना। हे अभागी स्त्री! तू अंत में पछताएगी क्योंकि तू प्रतिज्ञा रूपी रस्सी से बंधी हुई गाय को मार रही है। इसका दूसरा अर्थ हो सकता है, कि तू गऊ को मार रही है। तुझे नहारू रोग लगा हुआ है। इसमें दशरथ के मन की मानसिक पीड़ा है जो वह कैकेयी को गाली देकर व्यक्त करते हैं, इस प्रकार राजा ने अनेकों प्रकार से कहा और अंत में बोले तू मेरा वध क्यों नहीं कर देती। कैकेयी कपट करने में चतुर है। इसलिए वह कुछ नहीं कहती। उसे देखकर ऐसा लगता है माना मसान जगा रही है। भाव यह कि मसान जगाने वाला यदि प्रेत की मान ले तो विघ्न हो जाए उसी प्रकार यदि कैकेयी राजा की विनय को मान ले तो अब तक के किए कराए पर सब पानी फिर जाए।

विशेष- (i) यहाँ राजा ने अपनी मनोकामना को व्यक्त किया कि अयोध्या राम के बिना उजड़े जाएगी और उनके पुनः राजा बनने पर ही बसेगी।
(ii) मसान जगाना मुहावरा है।
(iii) इसमें अनुप्रास, उत्प्रेक्षा तथा उपमा अलंकार हैं। 

पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा ॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई।।
गए सुमंत्र तब राउर माहीं। देखि भयवन जात डेराहीं ॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति विषाद बसेरा ॥
पूछें कोउ न उतरु देई गए जेहिं भवन भूप कैकेई ॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। देखि भूप गति गयउ सुखाई ॥
सोच बिकल बिबरन महि घरेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ ॥
सचिउ सभीत सकइ नहि पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी ॥

दोहा - परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु ॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग द्वार पर खड़े सभी लोग बातचीत कर रहे हैं।

व्याख्या द्वार पर खड़े सभी लोग बात करते हैं, कि राजा तो नित्य रात्रि के अंतिम प्रहर में ब्रह्म मुहुर्त में जाग जाते हैं। आज हमें बडा आश्चर्य हो रहा है अर्थात् ऐसा शुभ दिन जबकि राम का राजतिलक होना है राजा अभी तक सोए हुए हैं। इसलिए उन लोगों ने सुमंत जी से कहा कि आप जाओ और राजा को जगाओ जिससे कि हम सभी लोग राजा की आज्ञा पाकर अपना-अपना काम पूरा कर सकें। तब सुमत जी अंतःपुर में गये। वहाँ की भयानकता को देखकर वे वहाँ पर जाते हुए डरने लगे। उन्हें ऐसा लगा मानो अंतःपुर उन्हें दौड़कर खा लेगा। उनसे वहाँ की दशा देखी नहीं जाती। ऐसा लगता था मानो वहाँ पर विपत्ति के साथ विषाद या दुःख ने डेरा डाला हुआ हो या वहाँ पर बसा हुआ हो। पूछने पर वहाँ कोई उत्तर नहीं देता। तब वे उस भवन में गए जहाँ राजा दशरथ व कैकेयी थीं। उन्होंने राजा को 'जय जीव' कहकर सिर झुकाया। वहाँ राजा की दशा देखकर वे सूख गये। उन्होंने देखा राजा शोक के कारण व्याकुल हैं। उनके चेहरे का रंग उड़ा हुआ है तथा वे जमीन पर पड़े हुए हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो जड़ समेत उखड़ा हुआ कमल पड़ा हो। मंत्री डर के मारे कुछ पूछ नहीं पा रहे हैं। तभी से भरी अशुभता हुई शुभता से खाली कैकेयी बोली कि राजा को रातभर नींद नहीं आयी। इसका कारण तो भगवान ही जाने। उन्होंने राम-राम रटते हुए सवेरा कर दिया, पर मर्म तो मुझे भी नहीं बतलाया। भाव यह कि राजा ने अपने मन की बात मुझे ही नहीं बतलाई है, सो तुम्हें क्या बतलाएंगे।

विशेष (i) विपत्ति विषाद बसेरा में रूढ़ि लक्षणा है।
(ii) इसमें अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, पुनरुक्ति तथा विशेषोक्ति अलंकार है।

सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू ॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई ॥
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ ॥
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी ॥
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन ॥
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम्ह पर बहुत सनेहू ॥
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना ॥
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू ॥

दोहा - सुत सनेहु इत बचन उत संकट परेउ नरेसु।
सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु ॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इन पंक्तियों में राजा दशरथ की दयनीय दशा का वर्णन किया गया है।

 

व्याख्या - राम ने आकर देखा कि राजा के होंठ सूखे हुए हैं तथा उनके शरीर के सभी अंग जल रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानों सर्प मणिहीन होकर दीन और दुःखी हो रहा है। पास ही कैकेयी को क्रोध से भरा हुआ देखा। ऐसा लगा मानो मृत्यु घड़ियाँ गिनकर लेंगी अर्थात् मार डालेंगी। राम का स्वभाव कोमल और करुणामय है। उन्होंने पहले-पहल वह दुःख देखा जो इससे पूर्व कभी किसी को कहते सुना न देखा। भाव यह कि दुःख से पहली बार साक्षात्कार हुआ। फिर भी उन्होंने धैर्य धारण किया और परिस्थिति पर विचार किया तब उन्होंने बहुत मधुर भाषा में माता कैकेयी से पूछा हे माता ! तुम मुझे पिता के दुःख का कारण बताओ जिससे कि उचित प्रयत्न कर उनके कष्ट को दूर किया जा सके। रानी कैकेयी ने राम का नाम सुनकर विचार किया तब बोलीं- राम, सुनो, सारा कारण यह है कि राजा का तुम्हारे ऊपर बहुत है। अर्थात् राजा तुमको अत्यधिक चाहते हैं। उन्होंने दो वरदान देने को कहा। मैंने उनसे वही माँग लिया जो मुझे अच्छा लगता था। मेरी बात सुनकर राजा के हृदय में बड़ा सोच हुआ है। तुम्हारा संकोच वे छोड़ नहीं सकते। एक ओर पुत्र के प्रति प्रेम है और दूसरी ओर दिया हुआ वचन है। राजा इसी संकट में पड़े हुए हैं। यदि तुम उनकी आज्ञा को सिर पर धारण करो तो उनका भारी दुःख दूर हो सकता है। भाव यह कि कैकेयी राम को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए कहती हैं। जिससे उसका मनोरथ पूर्ण हो सके।

विशेष- (i) इसमें कैकेयी का वाक चातुर्य है।
(ii) इसमें अनुप्रास, उत्प्रेक्षा अलंकार हैं।
(iii) इसमें राम के स्वभाव पर प्रकाश डाला गया है।

निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी ॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना।।
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषविद्या बर बीरु।।
सबु प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई ॥
मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। रामु सहज आनंद निधानू ॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल बाग बिभूषन।
सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी ॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा ॥

दोहा - मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर ॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कैकेयी के कटु वचनों का उल्लेख किया गया है।

व्याख्या - कैकेयी निःशंक या निडर होकर बैठी हुई कडुवे वचन बोल रही है। जिन्हें सुनकर कठोरता भी अत्यंत व्याकुल हो गयी अर्थात् उससे भी ये वचन न सुने गए और न सहन हुये। कैकेयी की जीभ मानो कमान है और उसके वचन अनेक प्रकार के बाण हैं और राजा दशरथ मानो उसके कोमल लक्ष्य के समान हैं अथवा उसे देखकर ऐसा लगता है मानो कठोरपन स्वयं ही श्रेष्ठ वीर का शरीर धारण करके धनुष-बाण चलाना सीख रहा है। उसने सारा प्रसंग राम को सुनाया और बैठ गई, मानो निष्ठुरता शरीर धारण कर बैठी हो। उसकी बात सुनकर सूर्य कुल के सूर्य अर्थात् श्री राम मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं। राम तो स्वयं ही स्वाभाविक रूप से आनंद के खजाने हैं। भाव यह कि कैकेयी के कठोरपन को धारण कर अपने वचन बाणों से पहले राजा दशरथ को व्याकुल कर दिया अब राम को कर रही हैं। उसकी निष्ठुरता तन, वचन, मन तीनों में है। निर्ममता मन की निष्ठुरता है। सब प्रसंग राम को सुनाना वचन की निष्ठुरता है तथा वहीं बैठे रहना तन की निष्ठुरता है। पर उसका प्रभाव राम पर नहीं पड़ा क्योंकि वे व्याकुल नहीं हुए बल्कि सहज ढंग से मुस्कुराते रहे।

श्री राम सब प्रकार के दूषणों से रहित निर्मल वचन बोले। उनके वचन इतने कोमल, मधुर हैं, कि लगता है मानो कि वे वाणी के आभूषण हों अर्थात् वाणी उनसे ही शोभा पाती है। हे माता! सुनो! वही पुत्र बड़ा भाग्यवान होता है जो माता-पिता के वचनों में प्रेम रखता हो अर्थात् उनका कहना माने तथा उनके वचनों की मर्यादा का पालन करे। हे माता! संसार में ऐसा पुत्र मिलना कठिन है, जो माता-पिता को संतुष्ट करने वाला हो। हे माता! वन जाने पर मुनिगणों से विशेष रूप से भेंट होगी इसमें तो मेरा सब प्रकार से भला ही भला है। ऐसा करने में पिता की आज्ञा और माता की सम्मति है। भाव यह कि ऐसा अवसर सर्वश्रेष्ठ है। जिसमें पिता की आज्ञा का पालन भी हो जाए और संतों का समागम भी हो जाए।

विशेष- (i) यहाँ पर कैकेयी के रूप में कठोरता को स्पष्ट किया गया है, जो कि तन, मन और वचन से व्यक्त होती है।
(ii) हर स्थिति में माता-पिता की आज्ञा पालन करने वाले पुत्र को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।
(iii) इसमें अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, रूपक तथा समुच्चय अलंकार हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- भारतीय ज्ञान परम्परा और हिन्दी साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में शुक्लोत्तर इतिहासकारों का योगदान बताइए।
  3. प्रश्न- प्राचीन आर्य भाषा का परिचय देते हुए, इनकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए?
  4. प्रश्न- मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए, इनकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए?
  5. प्रश्न- आधुनिक आर्य भाषा का परिचय देते हुए उनकी विशेषताएँ बताइए।
  6. प्रश्न- हिन्दी पूर्व की भाषाओं में संरक्षित साहित्य परम्परा का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  7. प्रश्न- वैदिक भाषा की ध्वन्यात्मक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- हिन्दी साहित्य का इतिहास काल विभाजन, सीमा निर्धारण और नामकरण की व्याख्या कीजिए।
  9. प्रश्न- आचार्य शुक्ल जी के हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन का आधार कहाँ तक युक्तिसंगत है? तर्क सहित बताइये।
  10. प्रश्न- काल विभाजन की उपयोगिता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  11. प्रश्न- आदिकाल के साहित्यिक सामग्री का सर्वेक्षण करते हुए इस काल की सीमा निर्धारण एवं नामकरण सम्बन्धी समस्याओं का समाधान कीजिए।
  12. प्रश्न- हिन्दी साहित्य में सिद्ध एवं नाथ प्रवृत्तियों पूर्वापरिक्रम से तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
  13. प्रश्न- नाथ सम्प्रदाय के विकास एवं उसकी साहित्यिक देन पर एक निबन्ध लिखिए।
  14. प्रश्न- जैन साहित्य के विकास एवं हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उसकी देन पर एक समीक्षात्मक निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- सिद्ध साहित्य पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- आदिकालीन साहित्य का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- हिन्दी साहित्य में भक्ति के उद्भव एवं विकास के कारणों एवं परिस्थितियों का विश्लेषण कीजिए।
  18. प्रश्न- भक्तिकाल की सांस्कृतिक चेतना पर प्रकाश डालिए।
  19. प्रश्न- कृष्ण काव्य परम्परा के प्रमुख हस्ताक्षरों का अवदान पर एक लेख लिखिए।
  20. प्रश्न- रामभक्ति शाखा तथा कृष्णभक्ति शाखा का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
  21. प्रश्न- प्रमुख निर्गुण संत कवि और उनके अवदान विवेचना कीजिए।
  22. प्रश्न- सगुण भक्ति धारा से आप क्या समझते हैं? उसकी दो प्रमुख शाखाओं की पारस्परिक समानताओं-असमानताओं की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ बताइये।
  24. प्रश्न- भक्तिकाल स्वर्णयुग है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  25. प्रश्न- उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल ) की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, काल सीमा और नामकरण, दरबारी संस्कृति और लक्षण ग्रन्थों की परम्परा, रीति-कालीन साहित्य की विभिन्न धारायें, ( रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त) प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ, रचनाकार और रचनाएँ रीति-कालीन गद्य साहित्य की व्याख्या कीजिए।
  26. प्रश्न- रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियों का परिचय दीजिए।
  27. प्रश्न- हिन्दी के रीतिमुक्त कवियों की विशेषताएँ बताइये।
  28. प्रश्न- बिहारी रीतिसिद्ध क्यों कहे जाते हैं? तर्कसंगत उत्तर दीजिए।
  29. प्रश्न- रीतिकाल को श्रृंगार काल क्यों कहा जाता है?
  30. प्रश्न- आधुनिक काल की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, सन् 1857 ई. की राजक्रान्ति और पुनर्जागरण की व्याख्या कीजिए।
  31. प्रश्न- हिन्दी नवजागरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल का प्रारम्भ कहाँ से माना जाये और क्यों?
  33. प्रश्न- आधुनिक काल के नामकरण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- भारतेन्दु युग के प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताएँ बताइये।
  35. प्रश्न- भारतेन्दु युग के गद्य की विशेषताएँ निरूपित कीजिए।
  36. प्रश्न- द्विवेदी युग प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताएँ बताइये।
  37. प्रश्न- द्विवेदी युगीन कविता के चार प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिये। उत्तर- द्विवेदी युगीन कविता की चार प्रमुख प्रवृत्तियां निम्नलिखित हैं-
  38. प्रश्न- छायावादी काव्य के प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  39. प्रश्न- छायावाद के दो कवियों का परिचय दीजिए।
  40. प्रश्न- छायावादी कविता की पृष्ठभूमि का परिचय दीजिए।
  41. प्रश्न- उत्तर छायावादी काव्य की विविध प्रवृत्तियाँ बताइये। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, नवगीत, समकालीन कविता, प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  42. प्रश्न- प्रयोगवादी काव्य प्रवृत्तियों का विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- प्रगतिवादी काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों का विवेचन कीजिए।
  44. प्रश्न- हिन्दी की नई कविता के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उसकी प्रमुख प्रवृत्तिगत विशेषताओं का प्रकाशन कीजिए।
  45. प्रश्न- समकालीन हिन्दी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- गीत साहित्य विधा का परिचय देते हुए हिन्दी में गीतों की साहित्यिक परम्परा का उल्लेख कीजिए।
  47. प्रश्न- गीत विधा की विशेषताएँ बताते हुए साहित्य में प्रचलित गीतों वर्गीकरण कीजिए।
  48. प्रश्न- भक्तिकाल में गीत विधा के स्वरूप पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
  49. अध्याय - 13 विद्यापति (व्याख्या भाग)
  50. प्रश्न- विद्यापति पदावली में चित्रित संयोग एवं वियोग चित्रण की विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
  51. प्रश्न- विद्यापति की पदावली के काव्य सौष्ठव का विवेचन कीजिए।
  52. प्रश्न- विद्यापति की सामाजिक चेतना पर संक्षिप्त विचार प्रस्तुत कीजिए।
  53. प्रश्न- विद्यापति भोग के कवि हैं? क्यों?
  54. प्रश्न- विद्यापति की भाषा योजना पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
  55. प्रश्न- विद्यापति के बिम्ब-विधान की विलक्षणता का विवेचना कीजिए।
  56. अध्याय - 14 गोरखनाथ (व्याख्या भाग)
  57. प्रश्न- गोरखनाथ का संक्षिप्त जीवन परिचय दीजिए।
  58. प्रश्न- गोरखनाथ की रचनाओं के आधार पर उनके हठयोग का विवेचन कीजिए।
  59. अध्याय - 15 अमीर खुसरो (व्याख्या भाग )
  60. प्रश्न- अमीर खुसरो के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- अमीर खुसरो की कविताओं में व्यक्त राष्ट्र-प्रेम की भावना लोक तत्व और काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए।
  62. प्रश्न- अमीर खुसरो का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके काव्य की विशेषताओं एवं पहेलियों का उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
  63. प्रश्न- अमीर खुसरो सूफी संत थे। इस आधार पर उनके व्यक्तित्व के विषय में आप क्या जानते हैं?
  64. प्रश्न- अमीर खुसरो के काल में भाषा का क्या स्वरूप था?
  65. अध्याय - 16 सूरदास (व्याख्या भाग)
  66. प्रश्न- सूरदास के काव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- "सूर का भ्रमरगीत काव्य शृंगार की प्रेरणा से लिखा गया है या भक्ति की प्रेरणा से" तर्कसंगत उत्तर दीजिए।
  68. प्रश्न- सूरदास के श्रृंगार रस पर प्रकाश डालिए?
  69. प्रश्न- सूरसागर का वात्सल्य रस हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है। सिद्ध कीजिए।
  70. प्रश्न- पुष्टिमार्ग के स्वरूप को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए?
  71. प्रश्न- हिन्दी की भ्रमरगीत परम्परा में सूर का स्थान निर्धारित कीजिए।
  72. अध्याय - 17 गोस्वामी तुलसीदास (व्याख्या भाग)
  73. प्रश्न- तुलसीदास का जीवन परिचय दीजिए एवं उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  74. प्रश्न- तुलसी की भाव एवं कलापक्षीय विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
  75. प्रश्न- अयोध्याकांड के आधार पर तुलसी की सामाजिक भावना के सम्बन्ध में अपने समीक्षात्मक विचार प्रकट कीजिए।
  76. प्रश्न- "अयोध्याकाण्ड में कवि ने व्यावहारिक रूप से दार्शनिक सिद्धान्तों का निरूपण किया है, इस कथन पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  77. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड के आधार पर तुलसी के भावपक्ष और कलापक्ष पर प्रकाश डालिए।
  78. प्रश्न- 'तुलसी समन्वयवादी कवि थे। इस कथन पर प्रकाश डालिए।
  79. प्रश्न- तुलसीदास की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए।
  80. प्रश्न- राम का चरित्र ही तुलसी को लोकनायक बनाता है, क्यों?
  81. प्रश्न- 'अयोध्याकाण्ड' के वस्तु-विधान पर प्रकाश डालिए।
  82. अध्याय - 18 कबीरदास (व्याख्या भाग)
  83. प्रश्न- कबीर का जीवन-परिचय दीजिए एवं उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिये।
  84. प्रश्न- कबीर के काव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- कबीर के काव्य में सामाजिक समरसता की समीक्षा कीजिए।
  86. प्रश्न- कबीर के समाज सुधारक रूप की व्याख्या कीजिए।
  87. प्रश्न- कबीर की कविता में व्यक्त मानवीय संवेदनाओं पर प्रकाश डालिए।
  88. प्रश्न- कबीर के व्यक्तित्व पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  89. अध्याय - 19 मलिक मोहम्मद जायसी (व्याख्या भाग)
  90. प्रश्न- मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन-परिचय दीजिए एवं उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  91. प्रश्न- जायसी के काव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  92. प्रश्न- जायसी के सौन्दर्य चित्रण पर प्रकाश डालिए।
  93. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  94. अध्याय - 20 केशवदास (व्याख्या भाग)
  95. प्रश्न- केशव को हृदयहीन कवि क्यों कहा जाता है? सप्रभाव समझाइए।
  96. प्रश्न- 'केशव के संवाद-सौष्ठव हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि हैं। सिद्ध कीजिए।
  97. प्रश्न- आचार्य केशवदास का संक्षेप में जीवन-परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- केशवदास के कृतित्व पर टिप्पणी कीजिए।
  99. अध्याय - 21 बिहारीलाल (व्याख्या भाग)
  100. प्रश्न- बिहारी की नायिकाओं के रूप-सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
  101. प्रश्न- बिहारी के काव्य की भाव एवं कला पक्षीय विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
  102. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
  103. प्रश्न- बिहारी ने किस आधार पर अपनी कृति का नाम 'सतसई' रखा है?
  104. प्रश्न- बिहारी रीतिकाल की किस काव्य प्रवृत्ति के कवि हैं? उस प्रवृत्ति का परिचय दीजिए।
  105. अध्याय - 22 घनानंद (व्याख्या भाग)
  106. प्रश्न- घनानन्द का विरह वर्णन अनुभूतिपूर्ण हृदय की अभिव्यक्ति है।' सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
  107. प्रश्न- घनानन्द के वियोग वर्णन की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  108. प्रश्न- घनानन्द का जीवन परिचय संक्षेप में दीजिए।
  109. प्रश्न- घनानन्द के शृंगार वर्णन की व्याख्या कीजिए।
  110. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  111. अध्याय - 23 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (व्याख्या भाग)
  112. प्रश्न- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की शैलीगत विशेषताओं को निरूपित कीजिए।
  113. प्रश्न- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काव्य की भाव-पक्षीय विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
  114. प्रश्न- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाषागत विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
  115. प्रश्न- भारतेन्दु जी के काव्य की कला पक्षीय विशेषताओं का निरूपण कीजिए। उत्तर - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काव्य की कलापक्षीय कला विशेषताएँ निम्न हैं-
  116. अध्याय - 24 जयशंकर प्रसाद (व्याख्या भाग )
  117. प्रश्न- सिद्ध कीजिए "प्रसाद का प्रकृति-चित्रण बड़ा सजीव एवं अनूठा है।"
  118. प्रश्न- जयशंकर प्रसाद सांस्कृतिक बोध के अद्वितीय कवि हैं। कामायनी के संदर्भ में उक्त कथन पर प्रकाश डालिए।
  119. अध्याय - 25 सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (व्याख्या भाग )
  120. प्रश्न- 'निराला' छायावाद के प्रमुख कवि हैं। स्थापित कीजिए।
  121. प्रश्न- निराला ने छन्दों के क्षेत्र में नवीन प्रयोग करके भविष्य की कविता की प्रस्तावना लिख दी थी। सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
  122. अध्याय - 26 सुमित्रानन्दन पन्त (व्याख्या भाग)
  123. प्रश्न- पंत प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। व्याख्या कीजिए।
  124. प्रश्न- 'पन्त' और 'प्रसाद' के प्रकृति वर्णन की विशेषताओं की तुलनात्मक समीक्षा कीजिए?
  125. प्रश्न- प्रगतिवाद और पन्त का काव्य पर अपने गम्भीर विचार 200 शब्दों में लिखिए।
  126. प्रश्न- पंत के गीतों में रागात्मकता अधिक है। अपनी सहमति स्पष्ट कीजिए।
  127. प्रश्न- पन्त के प्रकृति-वर्णन के कल्पना का अधिक्य हो इस उक्ति पर अपने विचार लिखिए।
  128. अध्याय - 27 महादेवी वर्मा (व्याख्या भाग)
  129. प्रश्न- महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का उल्लेख करते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  130. प्रश्न- "महादेवी जी आधुनिक युग की कवियत्री हैं।' इस कथन की सार्थकता प्रमाणित कीजिए।
  131. प्रश्न- महादेवी वर्मा का जीवन-परिचय संक्षेप में दीजिए।
  132. प्रश्न- महादेवी जी को आधुनिक मीरा क्यों कहा जाता है?
  133. प्रश्न- महादेवी वर्मा की रहस्य साधना पर विचार कीजिए।
  134. अध्याय - 28 सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' (व्याख्या भाग)
  135. प्रश्न- 'अज्ञेय' की कविता में भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों समृद्ध हैं। समीक्षा कीजिए।
  136. प्रश्न- 'अज्ञेय नयी कविता के प्रमुख कवि हैं' स्थापित कीजिए।
  137. प्रश्न- साठोत्तरी कविता में अज्ञेय का स्थान निर्धारित कीजिए।
  138. अध्याय - 29 गजानन माधव मुक्तिबोध (व्याख्या भाग)
  139. प्रश्न- मुक्तिबोध की कविता की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
  140. प्रश्न- मुक्तिबोध मनुष्य के विक्षोभ और विद्रोह के कवि हैं। इस कथन की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
  141. अध्याय - 30 नागार्जुन (व्याख्या भाग)
  142. प्रश्न- नागार्जुन की काव्य प्रवृत्तियों का विश्लेषण कीजिए।
  143. प्रश्न- नागार्जुन के काव्य के सामाजिक यथार्थ के चित्रण पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
  144. प्रश्न- अकाल और उसके बाद कविता का प्रतिपाद्य लिखिए।
  145. अध्याय - 31 सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' (व्याख्या भाग )
  146. प्रश्न- सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  147. प्रश्न- 'धूमिल की किन्हीं दो कविताओं के संदर्भ में टिप्पणी लिखिए।
  148. प्रश्न- सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' के संघर्षपूर्ण साहित्यिक व्यक्तित्व की विवेचना कीजिए।
  149. प्रश्न- सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' का संक्षिप्त जीवन परिचय लिखिए।
  150. प्रश्न- धूमिल की रचनाओं के नाम बताइये।
  151. अध्याय - 32 भवानी प्रसाद मिश्र (व्याख्या भाग)
  152. प्रश्न- भवानी प्रसाद मिश्र के काव्य की विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
  153. प्रश्न- भवानी प्रसाद मिश्र की कविता 'गीत फरोश' में निहित व्यंग्य पर प्रकाश डालिए।
  154. अध्याय - 33 गोपालदास नीरज (व्याख्या भाग)
  155. प्रश्न- कवि गोपालदास 'नीरज' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  156. प्रश्न- 'तिमिर का छोर' का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
  157. प्रश्न- 'मैं तूफानों में चलने का आदी हूँ' कविता की मूल संवेदना स्पष्ट कीजिए।

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